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शेर
फ़क़ीर-ए-शहर भी रहा हूँ 'शहरयार' भी मगर
जो इत्मिनान फ़क़्र में है ताज-ओ-तख़्त में नहीं
अहमद शहरयार
शेर
मिरे सीने में दिल है या कोई शहज़ादा-ए-ख़ुद-सर
किसी दिन उस को ताज-ओ-तख़्त से महरूम कर देखूँ
सरवत हुसैन
शेर
पर्दे में वो तो छुप गए दिखला के इक झलक
मैं पेच-ओ-ताब में रहा दिन भर तमाम रात