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शेर
जाँ-बर हो किस तरह तप-ए-सौदा से 'मुसहफ़ी'
हाँडी सा खदबदाए है कुछ इस जवाँ का मग़्ज़
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शेर
सुकून-ए-इज़्तिराब-ए-ग़म पे चारा-साज़ तो ख़ुश हैं
दिल-ए-बेताब की लेकिन क़ज़ा मालूम होती है
अब्दुल हई आरफ़ी
शेर
तह कर चुके बिसात-ए-ग़म-ओ-फ़िक्र-ए-रोज़गार
तब ख़ानक़ाह-ए-इश्क़-ओ-मोहब्बत में आए हैं