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शेर
अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें
जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें
अहमद फ़राज़
शेर
तरब-ज़ारों पे क्या गुज़री सनम-ख़ानों पे क्या गुज़री
दिल-ए-ज़िंदा मिरे मरहूम अरमानों पे क्या गुज़री
साहिर लुधियानवी
शेर
चल ऐ हम-दम ज़रा साज़-ए-तरब की छेड़ भी सुन लें
अगर दिल बैठ जाएगा तो उठ आएँगे महफ़िल से
साक़िब लखनवी
शेर
बसंत आई है मौज-ए-रंग-ए-गुल है जोश-ए-सहबा है
ख़ुदा के फ़ज़्ल से ऐश-ओ-तरब की अब कमी क्या है
मह लक़ा चंदा
शेर
रूह है महव-ए-तमन्ना हुस्न है मस्त-ए-तरब
इक नियाज़-ओ-नाज़ का बरपा है महशर सामने