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शेर
आली शेर हो या अफ़्साना या चाहत का ताना बाना
लुत्फ़ अधूरा रह जाता है पूरी बात बता देने से
जलील ’आली’
शेर
ऐ सर्व-ए-गुल-बदन तू ज़रा टुक चमन में आ
ज्यूँ गुल शगुफ़्ता हो के मिरी अंजुमन में आ
अबुल हसन ताना शाह
शेर
भला क्या ता'ना दूँ ज़ुहहाद को ज़ुहद-ए-रियाई का
पढ़ी है मैं ने मस्जिद में नमाज़-ए-बे-वज़ू बरसों
सय्यद यूसुफ़ अली खाँ नाज़िम
शेर
तबीअत अपनी घबराती है जब सुनसान रातों में
हम ऐसे में तिरी यादों की चादर तान लेते हैं