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शेर
दश्त-ए-वहशत-ख़ेज़ में उर्यां है 'आग़ा' आप ही
क़ासिद-ए-जानाँ को क्या देता जो ख़िलअत माँगता
आग़ा अकबराबादी
शेर
मिटा सकती नहीं नफ़रत को नफ़रत की रविश हरगिज़
बका-ए-नस्ल-ए-आदम के लिए उल्फ़त ज़रूरी है
मोहम्मद हाज़िम हस्सान
शेर
दिल को होना है फ़ना रहना है क़ाएम अक़्ल को
हस्ती-ए-आदम कहाँ जाए ये फ़ितरत छोड़ कर
प्रियंवदा इल्हान
शेर
सज दिया हैरत-ए-उश्शाक़ ने इस बुत का मकाँ
क़द्द-ए-आदम हैं लगे आइने दीवारों में