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शेर
कोई नालाँ कोई गिर्यां कोई बिस्मिल हो गया
उस के उठते ही दिगर-गूँ रंग-ए-महफ़िल हो गया
अबुल कलाम आज़ाद
शेर
इस ज़माने में ख़मोशी से निकलता नहीं काम
नाला पुर-शोर हो और ज़ोरों पे फ़रियाद रहे
वहशत रज़ा अली कलकत्वी
शेर
'नाशाद' न कोई नग़्मा है ये दर्द भरा इक नाला है
क्या समझे कोई दर्द-ए-जिगर जब चोट न दिल पर खाई हो