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शेर
वहशत रज़ा अली कलकत्वी
शेर
हमारा 'मीर'-जी से मुत्तफ़िक़ होना है ना-मुम्किन
उठाना है जो पत्थर इश्क़ का तो हल्का भारी क्या
निदा फ़ाज़ली
शेर
जम्अ हैं सारे मुसाफ़िर ना-ख़ुदा-ए-दिल के पास
कश्ती-ए-हस्ती नज़र आती है अब साहिल के पास
हरी चंद अख़्तर
शेर
डूबा सफ़ीना जिस में मुसाफ़िर कोई न था
लेकिन भरे हुए थे वहाँ ना-ख़ुदा बहुत