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शेर
वुसअ'त-ए-मशरब-ए-रिंदाँ का नहीं है महरम
ज़ाहिद-ए-सादा हमें बे-सर-ओ-सामाँ समझा
पंडित जवाहर नाथ साक़ी
शेर
हमेशा ख़ून-ए-दिल रोया हूँ मैं लेकिन सलीक़े से
न क़तरा आस्तीं पर है न धब्बा जैब ओ दामन पर
साइल देहलवी
शेर
मय-ख़ाने में क्यूँ याद-ए-ख़ुदा होती है अक्सर
मस्जिद में तो ज़िक्र-ए-मय-ओ-मीना नहीं होता
रियाज़ ख़ैराबादी
शेर
ये क़ैस-ओ-कोहकन के से फ़साने बन गए कितने
किसी ने टुकड़े कर के सब हमारी दास्ताँ रख दी