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शेर
न तुम आए न चैन आया न मौत आई शब-ए-व'अदा
दिल-ए-मुज़्तर था मैं था और थीं बे-ताबियाँ मेरी
फ़य्याज़ हाशमी
शेर
ये सोचा है कि तुझ को सोचना अब छोड़ दूँगा मैं
ये लग़्ज़िश मुझ से लेकिन बे-इरादा हो ही जाती है
फ़य्याज़ फ़ारुक़ी
शेर
कैसे मुमकिन है कि क़िस्से जिस से सब वाबस्ता हों
वो चले और साथ उस के दास्ताँ कोई न हो