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शेर
है ये फ़लक-ए-सिफ़्ला वो फीका सा फ़रंगी
रखता है मह ओ ख़ुर से जो पास अपने दो बिस्कुट
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शेर
तिरी महफ़िल में फ़र्क़-ए-कुफ़्र-ओ-ईमाँ कौन देखेगा
फ़साना ही नहीं कोई तो उनवाँ कौन देखेगा
अज़ीज़ वारसी
शेर
महक में ज़हर की इक लहर भी ख़्वाबीदा रहती है
ज़िदें आपस में टकराती हैं फ़र्क़-ए-मार-ओ-संदल कर
अज़ीज़ हामिद मदनी
शेर
तो शराफ़तों का मक़ाम है तो सदाक़तों का दवाम है
जहाँ फ़र्क़-ए-शाह-ओ-गदा नहीं तिरे दीन का वो निज़ाम है
नासिर शहज़ाद
शेर
हक़ीक़ी और मजाज़ी शायरी में फ़र्क़ ये पाया
कि वो जामे से बाहर है ये पाजामे से बाहर है
अकबर इलाहाबादी
शेर
मुग़ीसुद्दीन फ़रीदी
शेर
फ़र्क़ ये है नुत्क़ के साँचे में ढल सकता नहीं
वर्ना जो आँसू है दुर्र-ए-शाह-वार-ए-नग़्मा है
गोपाल मित्तल
शेर
हिन्दू बचा ने छीन के दिल मुझ से यूँ कहा
हिन्दोस्ताँ भी किश्वर-ए-तुर्का से कम नहीं