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शेर
गर यही ना-साज़ी-ए-दीं है तो इक दिन शैख़-जी
फिर वही हम हैं वही बुत है वही ज़ुन्नार है
क़ाएम चाँदपुरी
शेर
नहीं वो हम कि कहने से तिरे हर बुत के बंदे हों
करे पैदा भी गर नासेह तू उस ग़ारत-गर-ए-दीं सा
मिर्ज़ा अली लुत्फ़
शेर
'मुसहफ़ी' शिर्क भी ऐसे का नहीं यार बुरा
कुफ़्र के साथ हो गर रग़बत-ए-दीं थोड़ी सी
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शेर
तेरे घर आएँ तो ईमान को किस पर छोड़ें
हम तो काबे ही में ऐ दुश्मन-ए-दीं अच्छे हैं
मुज़्तर ख़ैराबादी
शेर
सुन्नी ओ शीआ के क़ज़िए में है हैराँ मिरी अक़्ल
नहीं हिलता ये अजब दर रह-ए-दीं पत्थर है
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शेर
छोड़ कर तस्बीह ली ज़ुन्नार उस बुत के लिए
थे तो अहल-ए-दीं पर इस दिल ने बरहमन कर दिया
जुरअत क़लंदर बख़्श
शेर
ख़रीदारी है शहद ओ शीर ओ क़स्र ओ हूर ओ ग़िल्माँ की
ग़म-ए-दीं भी अगर समझो तो इक धंदा है दुनिया का
सय्यद यूसुफ़ अली खाँ नाज़िम
शेर
किसी के संग-ए-दर से एक मुद्दत सर नहीं उट्ठा
मोहब्बत में अदा की हैं नमाज़ें बे-वुज़ू बरसों