aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
परिणाम "बेघर"
दर-ब-दर ठोकरें खाईं तो ये मालूम हुआघर किसे कहते हैं क्या चीज़ है बे-घर होना
इन्हें आँखों ने बेदर्दी से बे-घर कर दिया हैये आँसू क़हक़हा बनने की कोशिश कर रहे थे
एक मुद्दत से हैं सफ़र में हमघर में रह कर भी जैसे बेघर से
शहर की गलियों और सड़कों पर फिरते हैं मायूसी मेंकाश कोई 'अनवर' से पूछे ऐसे बे-घर कितने हैं
अब ज़मीनों को बिछाए कि फ़लक को ओढ़ेमुफ़्लिसी तो भरी बरसात में बे-घर हुई है
मैं ग़म को बसा रहा हूँ दिल मेंबे-घर को मकान दे रहा हूँ
रौशनी अब राह से भटका भी देती है मियाँउस की आँखों की चमक ने मुझ को बे-घर कर दिया
बे-घर होना बे-घर रहना सब अच्छा ठहराघर के अंदर घर नहीं पाया शहर में पाया शहर
शाम प्यारी शाम उस पर भी कोई दर खोल देशाख़ पर बैठी हुई है एक बेघर फ़ाख़्ता
मिरे मालिक मुझे इस ख़ाक से बे-घर न करनामोहब्बत के सफ़र में चलते चलते थक गया हूँ मैं
वाए क़िस्मत सबब इस का भी ये वहशत ठहरीदर-ओ-दीवार में रह कर भी मैं बे-घर निकला
हर तरह की बे-सर-ओ-सामानियों के बावजूदआज वो आया तो मुझ को अपना घर अच्छा लगा
अब तक न ख़बर थी मुझे उजड़े हुए घर कीवो आए तो घर बे-सर-ओ-सामाँ नज़र आया
इक घर बना के कितने झमेलों में फँस गएकितना सुकून बे-सर-ओ-सामानियों में था
बे-दर-ओ-दीवार सा इक घर बनाया चाहिएकोई हम-साया न हो और पासबाँ कोई न हो
हमें भी तजरबा है बे-घरी का छत न होने कादरिंदे, बिजलियाँ, काली घटाएँ शोर करती हैं
सर पे एहसान रहा बे-सर-ओ-सामानी काख़ार-ए-सहरा से न उलझा कभी दामन अपना
ज़मीन पाँव तले है न आसमाँ सर परपड़े हैं घर में कई लोग बे-घरों की तरह
ग़म की तकमील का सामान हुआ है पैदालाइक़-ए-फ़ख़्र मिरी बे-सर-ओ-सामानी है
तेरी यादों का ही सरमाया लिए बैठे हैंहम कभी बे-सर-ओ-सामान न होने पाए
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