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शेर
मोहब्बत थी चमन से लेकिन अब ये बे-दिमाग़ी है
कि मौज-ए-बू-ए-गुल से नाक में आता है दम मेरा
मिर्ज़ा ग़ालिब
शेर
मिलेगा ज़ुल्फ़-ए-आज़ादी उन्हें क्या मौसम-ए-गुल में
क़फ़स से छूट कर गुलशन में जो बे-बाल-ओ-पर आए