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शेर
नियाज़-ए-बे-ख़ुदी बेहतर नमाज़-ए-ख़ुद-नुमाई सीं
न कर हम पुख़्ता-मग़्ज़ों सीं ख़याल-ए-ख़ाम ऐ वाइ'ज़
सिराज औरंगाबादी
शेर
मुझे दोनों जहाँ में एक वो मिल जाएँ गर 'अख़्तर'
तो अपनी हसरतों को बे-नियाज़-ए-दो-जहाँ कर लूँ
अख़्तर शीरानी
शेर
मोहब्बत ख़ुद मोहब्बत का सिला है 'आरफ़ी' लेकिन
कोई आसान है क्या बे-नियाज़-ए-मुद्दआ होना
अब्दुल हई आरफ़ी
शेर
शम्अ के मानिंद अहल-ए-अंजुमन से बे-नियाज़
अक्सर अपनी आग में चुप चाप जल जाते हैं लोग
हिमायत अली शाएर
शेर
वो और होंगे जिन को है फ़िक्र-ए-ज़ियान-ओ-सूद
दुनिया से बे-नियाज़ है मेरी ग़ज़ल का रंग