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शेर
ऐ बाग़बाँ नहीं तिरे गुलशन से कुछ ग़रज़
मुझ से क़सम ले छेड़ूँ अगर बर्ग-ओ-बर कहीं
बन्द्र इब्न-ए-राक़िम
शेर
क्या बदन होगा कि जिस के खोलते जामे का बंद
बर्ग-ए-गुल की तरह हर नाख़ुन मोअत्तर हो गया
इनामुल्लाह ख़ाँ यक़ीन
शेर
शह-ज़ोर अपने ज़ोर में गिरता है मिस्ल-ए-बर्क़
वो तिफ़्ल क्या गिरेगा जो घुटनों के बल चले
मिर्ज़ा अज़ीम बेग 'अज़ीम'
शेर
चमक जुगनू की बर्क़-ए-बे-अमाँ मालूम होती है
क़फ़स में रह के क़द्र-ए-आशियाँ मालूम होती है
सीमाब अकबराबादी
शेर
मता-ए-बर्ग-ओ-समर वही है शबाहत-ए-रंग-ओ-बू वही है
खुला कि इस बार भी चमन पर गिरफ़्त-ए-दस्त-ए-नुमू वही है