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शेर
कभी मैं जुरअत-ए-इज़हार-ए-मुद्दआ तो करूँ
कोई जवाज़ तो हो लुत्फ़-ए-बे-सबब के लिए
सय्यद आबिद अली आबिद
शेर
यही तो कुफ़्र है यारान-ए-बे-ख़ुदी के हुज़ूर
जो कुफ़्र-ओ-दीं का मिरे यार इम्तियाज़ रहा
मिर्ज़ा अली लुत्फ़
शेर
ग़ुरूर भी जो करूँ मैं तो आजिज़ी हो जाए
ख़ुदी में लुत्फ़ वो आए कि बे-ख़ुदी हो जाए
रियाज़ ख़ैराबादी
शेर
मिला न लुत्फ़-ए-विसाल लेकिन मज़े का शब भर रहा तमाशा
इधर खुला बंद उस क़बा का गिरह लगा दी उधर हया ने
जलील मानिकपूरी
शेर
नहीं वो हम कि कहने से तिरे हर बुत के बंदे हों
करे पैदा भी गर नासेह तू उस ग़ारत-गर-ए-दीं सा