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शेर
मज़ा मतला का दे फ़िक्र-ए-दो-पहलू हो तो ऐसी हो
रहें हिस्से बराबर बैत-ए-अबरू हो तो ऐसी हो
नसीम देहलवी
शेर
हमारे मय-कदे में हैं जो कुछ की निय्यतें ज़ाहिर
कब इस ख़ूबी से ऐ ज़ाहिद तिरा बैत-ए-हरम होगा
ताबाँ अब्दुल हई
शेर
घाट पर तलवार के नहलाईयो मय्यत मिरी
कुश्ता-ए-अबरू हूँ मैं क्या ग़ुस्ल-ख़ाना चाहिए
असद अली ख़ान क़लक़
शेर
कभी मदफ़ून हुए थे जिस जगह पर कुश्ता-ए-अबरू
अभी तक इस ज़मीं से सैकड़ों ख़ंजर निकलते हैं
रशीद लखनवी
शेर
तुम्हारे इश्क़-ए-अबरू में हिलाल-ए-ईद की सूरत
हज़ारों उँगलियाँ उट्ठीं जिधर से हो के हम निकले
किशन कुमार वक़ार
शेर
सख़्त है हैरत हमें जो ज़ेर-ए-अबरू ख़ाल है
हम तो सुनते थे कि का'बे में कोई हिन्दू नहीं
गोया फ़क़ीर मोहम्मद
शेर
क्या इसी ने ये किया मतला-ए-अबरू मौज़ूँ
तुम जो कहते हो सुख़न-गो है बड़ी मेरी आँख