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शेर
हुस्न को क्या दुश्मनी है इश्क़ को क्या बैर है
अपने ही क़दमों की ख़ुद ही ठोकरें खाता हूँ मैं
जिगर मुरादाबादी
शेर
एक ही चीज़ है पर्दे में कि बैरून-ए-हिजाब
मुझ को ज़ाहिर भी किया ख़ुद को छुपाया भी गया
अबु मोहम्मद वासिल बहराईची
शेर
न पाया गाह क़ाबू आह मैं ने हाथ जब डाला
निकाला बैर मुझ से जब तिरे पिस्ताँ का मुँह काला
अब्दुल रहमान एहसान देहलवी
शेर
सब के आँगन झाँकने वाले हम से ही क्यूँ बैर तुझे
कब तक तेरा रस्ता देखें सारी रात के जागे हम
अहसन यूसुफ़ ज़ई
शेर
आज की शब गर रहेंगे 'मुसहफ़ी' बैरून-ए-दर
क्या करें हम को तो दरबाँ की भी ख़ातिर है ज़रूर