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शेर
फिर नज़र में फूल महके दिल में फिर शमएँ जलीं
फिर तसव्वुर ने लिया उस बज़्म में जाने का नाम
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
शेर
बैठता है जब तुंदीला शैख़ आ कर बज़्म में
इक बड़ा मटका सा रहता है शिकम आगे धरा
इंशा अल्लाह ख़ान इंशा
शेर
उधर वो अहद-ओ-पैमान-ए-वफ़ा की बात करते हैं
इधर मश्क़-ए-सितम भी तर्क फ़रमाया नहीं जाता
अनीस अहमद अनीस
शेर
वो कमसिन हैं उन्हें मश्क़-ए-सितम को चाहिए मुद्दत
अभी तो नाम सुन कर ख़ंजर-ओ-पैकाँ का डरते हैं
हाज़िक़
शेर
दफ़ीना घर में क्या था और तो हम बादा-नोशों के
खुदा जब शहर सारा वाँ से निकला मय का इक मटका