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शेर
मता-ए-लौह-ओ-क़लम छिन गई तो क्या ग़म है
कि ख़ून-ए-दिल में डुबो ली हैं उँगलियाँ मैं ने
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
शेर
आस्तानों की क़दम-बोसी में पिन्हाँ ख़ून-ए-सर
और वुफ़ूर-ए-शौक़ में ये सर हो ख़म कुछ और है
अख़लाक़ अहमद आहन
शेर
दुआएँ माँगी हैं साक़ी ने खोल कर ज़ुल्फ़ें
बसान-ए-दस्त-ए-करम अब्र-ए-दजला-बार बरस