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शेर
शिद्दत-ए-तिश्नगी में भी ग़ैरत-ए-मय-कशी रही
उस ने जो फेर ली नज़र मैं ने भी जाम रख दिया
अहमद फ़राज़
शेर
छोड़ भी देते मोहतसिब हम तो ये शग़्ल-ए-मय-कशी
ज़िद का सवाल है तो फिर जा इसी बात पर नहीं
नातिक़ गुलावठी
शेर
मय-कदे में क्या तकल्लुफ़ मय-कशी में क्या हिजाब
बज़्म-ए-साक़ी में अदब आदाब मत देखा करो
अहमद फ़राज़
शेर
अगर तेरी तरह तब्लीग़ करता पीर-ए-मय-ख़ाना
तो दुनिया-भर में वाइज़ मय-कशी ही मय-कशी होती