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शेर
हमारे ब'अद उस मर्ग-ए-जवाँ को कौन समझेगा
इरादा है कि अपना मर्सिया भी आप ही लिख लें
ख़लील-उर-रहमान आज़मी
शेर
हम पे जो गुज़री है बस उस को रक़म करते हैं
आप-बीती कहो या मर्सिया-ख़्वानी कह लो
ख़लील-उर-रहमान आज़मी
शेर
हिज्र के दिन तो हुए ख़त्म बड़ी धूम के साथ
वस्ल की रात है क्यूँ मर्सिया-ख़्वानी करें हम
सालिम सलीम
शेर
ग़म सीं अहल-ए-बैत के जी तो तिरा कुढ़ता नहीं
यूँ अबस पढ़ता फिरा जो मर्सिया तो क्या हुआ
आबरू शाह मुबारक
शेर
शिकस्त ओ फ़त्ह मियाँ इत्तिफ़ाक़ है लेकिन
मुक़ाबला तो दिल-ए-ना-तवाँ ने ख़ूब किया
नवाब मोहम्मद यार ख़ाँ अमीर
शेर
'मोमिन-मियाँ' ये काम नहीं है ये इश्क़ है
क्या सोच में पड़े हो करूँ या करूँ नहीं