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शेर
कहा आशिक़ से वाक़िफ़ हो तो फ़रमाया नहीं वाक़िफ़
मगर हाँ इस तरफ़ से एक ना-महरम निकलता है
हैरत इलाहाबादी
शेर
न लगी मुझ को जब उस शोख़-ए-तरहदार की गेंद
उस ने महरम को सँभाल और ही तय्यार की गेंद
इंशा अल्लाह ख़ान इंशा
शेर
वुसअ'त-ए-मशरब-ए-रिंदाँ का नहीं है महरम
ज़ाहिद-ए-सादा हमें बे-सर-ओ-सामाँ समझा
पंडित जवाहर नाथ साक़ी
शेर
बंद महरम के वो खुलवातें हैं हम से बेशतर
आज-कल सोने की चिड़िया है हमारे हाथ में