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शेर
क़िस्सा-ए-मजनूँ-ओ-फ़र्हाद भी इक पर्दा है
जो फ़साना है यहाँ शरह-ओ-बयाँ है अपना
शैख़ ज़हूरूद्दीन हातिम
शेर
किताब-ए-दर्स-ए-मजनूँ मुसहफ़-रुख़्सार-ए-लैला है
हरीफ़-ए-नुक्ता-दान-ए-इश्क़ को मकतब से क्या मतलब
साहिर देहल्वी
शेर
अफ़्साना-ए-मजनूँ से नहीं कम मिरा क़िस्सा
इस बात को जाने दो कि मशहूर नहीं है
सय्यद यूसुफ़ अली खाँ नाज़िम
शेर
मिस्ल-ए-मजनूँ जो परेशाँ है बयाबान में आज
क्यूँ दिला कौन समाया है तिरे ध्यान में आज
जुरअत क़लंदर बख़्श
शेर
सच इश्क़ में हैं आशिक़ ओ माशूक़ बराबर
जो मुश्किल-ए-मजनूँ है सो है मुश्किल-ए-लैला
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शेर
क़िस्सा-ए-मजनूँ पसंद-ए-ख़ातिर जानाना है
वर्ना ख़्वाब-आवर तो अपने ग़म का भी अफ़्साना है
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शेर
अगर उर्यानी-ए-मजनूँ पे आता रहम लैला को
बना देती क़बा वो चाक कर के पर्दा महमिल का
मुनव्वर ख़ान ग़ाफ़िल
शेर
हो गया लाग़र जो उस लैला-अदा के इश्क़ में
मिस्ल-ए-मजनूँ हाल मेरा भी फ़साना हो गया
भारतेंदु हरिश्चंद्र
शेर
मिरा कुछ हाल कह कर ज़िक्र-ए-मजनूँ करते हैं आशिक़
किताब-ए-आशिक़ी में अपना क़िस्सा पेश-ख़्वानी है