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शेर
क्यूँ मुजरिम-ए-वफ़ा से हैं ये बद-गुमानियाँ
क्यूँ डर रहे हैं पुर्सिश-ए-रोज़-ए-जज़ा से आप
खैरुद्दीन यास
शेर
तब्अ कह और ग़ज़ल, है ये 'नज़ीरी' का जवाब
रेख़्ता ये जो पढ़ा क़ाबिल-ए-इज़हार न था
जुरअत क़लंदर बख़्श
शेर
नशात-ए-इज़हार पर अगरचे रवा नहीं ए'तिबार करना
मगर ये सच है कि आदमी का सुराग़ मिलता है गुफ़्तुगू से
ग़ुलाम हुसैन साजिद
शेर
कभी मैं जुरअत-ए-इज़हार-ए-मुद्दआ तो करूँ
कोई जवाज़ तो हो लुत्फ़-ए-बे-सबब के लिए