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शेर
हमारा 'मीर'-जी से मुत्तफ़िक़ होना है ना-मुम्किन
उठाना है जो पत्थर इश्क़ का तो हल्का भारी क्या
निदा फ़ाज़ली
शेर
हुस्न-ए-सूरत चंद रोज़ हुस्न-ए-सीरत मुस्तक़िल
इस से ख़ुश होते हैं लोग उस से ख़ुश होते हैं दिल
अज्ञात
शेर
कहूँ तो किस से कहूँ अपना दर्द-ए-दिल मैं ग़रीब
न आश्ना न मुसाहिब न हम-नशीं कोई
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शेर
लिख के रख देता हूँ अल्फ़ाज़ सभी काग़ज़ पर
लफ़्ज़ ख़ुद बोल के तासीर बना लेते हैं
मोहम्मद मुस्तहसन जामी
शेर
इक कर्ब का मौसम है जो दाइम है अभी तक
इक हिज्र का क़िस्सा कि मुकम्मल नहीं होता
मोहम्मद मुस्तहसन जामी
शेर
मेरी ख़्वाहिश है कि जी भर के उसे देख तो लूँ
हिज्र के मुमकिना सदमात से पहले पहले