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शेर
छुपा न गोशा-नशीनी से राज़-ए-दिल 'वहशत'
कि जानता है ज़माना मिरे सुख़न से मुझे
वहशत रज़ा अली कलकत्वी
शेर
छुप सका दम भर न राज़-ए-दिल फ़िराक़-ए-यार में
वो निहाँ जिस दम हुआ सब आश्कारा हो गया
मिर्ज़ा रज़ा बर्क़
शेर
इब्न-ए-इंशा
शेर
चुभेंगे ज़ीरा-हा-ए-शीशा-ए-दिल दस्त-ए-नाज़ुक में
सँभल कर हाथ डाला कीजिए मेरे गरेबाँ पर
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
शेर
किस तरह कर दिया दिल-ए-नाज़ुक को चूर-चूर
इस वाक़िआ' की ख़ाक है पत्थर को इत्तिलाअ'