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शेर
अभी आते नहीं उस रिंद को आदाब-ए-मय-ख़ाना
जो अपनी तिश्नगी को फ़ैज़-ए-साक़ी की कमी समझे
आल-ए-अहमद सुरूर
शेर
न देखे होंगे रिंद-ए-ला-उबाली तुम ने 'बेख़ुद' से
कि ऐसे लोग अब आँखों से ओझल होते जाते हैं
बेख़ुद देहलवी
शेर
मिरे दिल से कभी ग़ाफ़िल न हों ख़ुद्दाम-ए-मय-ख़ाना
ये रिंद-ए-ला-उबाली बे-पिए भी तो बहकता है
फ़िराक़ गोरखपुरी
शेर
तमीज़-दैर-ओ-का'बा है न फ़िक्र-ए-दीन-दुनिया है
ये रिंद-ए-पाक-तीनत भी तिरे अल्लाह वाले हैं
जलील मानिकपूरी
शेर
हम रिंद-ए-परेशाँ हैं माह-ए-रमज़ाँ है
चमकी हुई इन रोज़ों में वाइ'ज़ की दुकाँ है