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शेर
रुख़-ए-रौशन से यूँ उट्ठी नक़ाब आहिस्ता आहिस्ता
कि जैसे हो तुलू-ए-आफ़्ताब आहिस्ता आहिस्ता
वहशत रज़ा अली कलकत्वी
शेर
रुख़-ए-रौशन पे उस की गेसू-ए-शब-गूँ लटकते हैं
क़यामत है मुसाफ़िर रास्ता दिन को भटकते हैं
भारतेंदु हरिश्चंद्र
शेर
बना कर तिल रुख़-ए-रौशन पर दो शोख़ी से से कहते हैं
ये काजल हम ने यारा है चराग़-ए-माह-ए-ताबाँ पर
असद अली ख़ान क़लक़
शेर
काश सोता ही रहूँ मैं कि नहीं चाहता दिल
हर सहर उठ के रुख़-ए-गब्र-ओ-मुसलमाँ देखूँ
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शेर
तब जानूँ मैं कि दीन-ए-मोहम्मद के हैं हरीफ़
जब रोज़-ए-हश्र हो रुख़-ए-अहल-ए-फ़रंग सुर्ख़