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शेर
पी बादा-ए-अहमर तो ये कहने लगा गुल-रू
मैं सुर्ख़ हूँ तुम सुर्ख़ ज़मीं सुर्ख़ ज़माँ सुर्ख़
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
शेर
लरज़ता है मिरा दिल ज़हमत-ए-मेहर-ए-दरख़्शाँ पर
मैं हूँ वो क़तरा-ए-शबनम कि हो ख़ार-ए-बयाबाँ पर
मिर्ज़ा ग़ालिब
शेर
फाड़ ही डालूँगा मैं इक दिन नक़ाब-ए-रू-ए-यार
फेंक दूँगा खोद कर गुलज़ार की दीवार को
मिर्ज़ा मासिता बेग मुंतही
शेर
उठा पर्दा तो महशर भी उठेगा दीदा-ए-दिल में
क़यामत छुप के बैठी है नक़ाब-ए-रू-ए-क़ातिल में
फ़ना बुलंदशहरी
शेर
'सुहैल' उन दोस्तों का जी लगे किस तरह कॉलेज में
जो दर्स-ए-शौक़ लेते हैं किताब-ए-रू-ए-जानाँ से
सुहैल अज़ीमाबादी
शेर
हम रू-ब-रू-ए-शम्अ हैं इस इंतिज़ार में
कुछ जाँ परों में आए तो उड़ कर निसार हों