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शेर
जो बार-ए-दोश रहा सर वो कब था शोरीदा
बहा न जिस से लहू वो रग-ए-गुलू क्या थी
अकबर अली खान अर्शी जादह
शेर
दस्त-ए-शिकस्ता अपना न पहुँचा कभी दरेग़
वाँ तर्फ़-ए-दोश बर-सर-ए-दस्तार ही रहा
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शेर
बाल रुख़्सारों से जब उस ने हटाए तो खुला
दो फ़रंगी सैर को निकले हैं मुल्क-ए-शाम से
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
शेर
है तलाश-ए-दो-जहाँ लेकिन ख़बर अपनी किसे
जीते-जी तक जुस्तुजू सब कुछ है और फिर कुछ नहीं
जोर्ज पेश शोर
शेर
ज़िंदगी-ए-दो-रोज़ा से करते हैं वज़्अ जन्नतें
हम को बहुत है ये जहाँ जन्नत-ए-जावेदाँ न दे