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शेर
तुम्हारा दिल मिरे दिल के बराबर हो नहीं सकता
वो शीशा हो नहीं सकता ये पत्थर हो नहीं सकता
दाग़ देहलवी
शेर
उठा सुराही ये शीशा वो जाम ले साक़ी
फिर इस के बाद ख़ुदा का भी नाम ले साक़ी
कुँवर महेंद्र सिंह बेदी सहर
शेर
इस हवा में कर रहे हैं हम तिरा ही इंतिज़ार
आ कहीं जल्दी से साक़ी शीशा ओ साग़र समेत
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शेर
दिल के टुकड़ों को बग़ल-गीर लिए फिरता हूँ
कुछ इलाज इस का भी ऐ शीशा-गिराँ है कि नहीं
मोहम्मद रफ़ी सौदा
शेर
न बज़्म अपनी न अपना साक़ी न शीशा अपना न जाम अपना
अगर यही है निज़ाम-ए-हस्ती तो ज़िंदगी को सलाम अपना