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शेर
किसी के संग-ए-दर से एक मुद्दत सर नहीं उट्ठा
मोहब्बत में अदा की हैं नमाज़ें बे-वुज़ू बरसों
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
शेर
आख़िर गिल अपनी सर्फ़-ए-दर-ए-मय-कदा हुई
पहुँचे वहाँ ही ख़ाक जहाँ का ख़मीर हो
मिर्ज़ा जवाँ बख़्त जहाँदार
शेर
दिल है गर प्यार से सरशार तो मुमकिन है 'हबीब'
तू जिधर जाए वो राह-ए-दर-ए-जानाना बने
जयकृष्ण चौधरी हबीब
शेर
जल्वा-गर दिल में ख़याल-ए-आरिज़-ए-जानाना था
घर की ज़ीनत थी कि ज़ीनत-बख़्श साहब-ख़ाना था
हबीब मूसवी
शेर
बहुत हैं सज्दा-गाहें पर दर-ए-जानाँ नहीं मिलता
हज़ारों देवता हैं हर तरफ़ इंसाँ नहीं मिलता
ख़ालिद हसन क़ादिरी
शेर
अज़ल से आज तक सज्दे किए और ये नहीं सोचा
किसी का आस्ताँ क्यूँ है किसी का संग-ए-दर क्या है
सबा अकबराबादी
शेर
इन्हें दर-ए-ख़्वाब-गाह से किस लिए हटाया
मुहाफ़िज़ों की वफ़ा-शिआरी में क्या कमी थी