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शेर
पुराने ख़्वाबों से रेज़ा रेज़ा बदन हुआ है
ये चाहता हूँ कि अब नया कोई ख़्वाब देखूँ
अख़्तर होशियारपुरी
शेर
जो सारा दिन मिरे ख़्वाबों को रेज़ा रेज़ा करते हैं
मैं उन लम्हों को सी कर रात का बिस्तर बनाती हूँ
सरवत ज़ेहरा
शेर
सीने के ज़ोर से भी मू भर नहीं उकसती
इन रोज़ों हिज्र की सिल ये भारी हो गई है