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शेर
फूल तो दो दिन बहार-ए-जाँ-फ़ज़ा दिखला गए
हसरत उन ग़ुंचों पे है जो बिन खिले मुरझा गए
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
शेर
सुरूर-ए-जाँ-फ़ज़ा देती है आग़ोश-ए-वतन सब को
कि जैसे भी हों बच्चे माँ को प्यारे एक जैसे हैं
सरफ़राज़ शाहिद
शेर
चटक में ग़ुंचे की वो सौत-ए-जाँ-फ़ज़ा तो नहीं
सुनी है पहले भी आवाज़ ये कहीं मैं ने