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शेर
मैं भी इस सफ़्हा-ए-हस्ती पे उभर सकता हूँ
रंग तो तुम मिरी तस्वीर में भर कर देखो
अब्दुल हफ़ीज़ नईमी
शेर
गो कि हम सफ़्हा-ए-हस्ती पे थे एक हर्फ़-ए-ग़लत
लेकिन उठ्ठे भी तो इक नक़्श बिठा कर उठे
मोमिन ख़ाँ मोमिन
शेर
मुख़्तसर अपनी हदीस-ए-ज़ीस्त ये है इश्क़ में
पहले थोड़ा सा हँसे फिर उम्र भर रोया किए
आनंद नारायण मुल्ला
शेर
जब से फ़रेब-ए-ज़ीस्त में आने लगा हूँ मैं
ख़ुद अपनी मुश्किलों को बढ़ाने लगा हूँ मैं
मुमताज़ अहमद ख़ाँ ख़ुशतर खांडवी
शेर
कौन अब कश्मकश-ए-ज़ीस्त से दे मुझ को नजात
कर चुका है मिरा क़ातिल नज़र-अंदाज़ मुझे