aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
परिणाम "समाजत"
मोहब्बत एक तरह की निरी समाजत हैमैं छोड़ूँ हूँ तिरी अब जुस्तुजू हुआ सो हुआ
बहुत शोर था जब समाअ'त गईबहुत भीड़ थी जब अकेले हुए
दिखाई देता है जो कुछ कहीं वो ख़्वाब न होजो सुन रही हूँ वो धोका न हो समाअत का
उसे ही बात सुनाने को दिल नहीं करतावो शख़्स जिस के लिए ज़िंदगी समाअ'त थी
मिरे जुर्म-ए-वफ़ा का फ़ैसला कुछ इस तरह होगासज़ा का हुक्म फ़ौरी और समाअत सरसरी होगी
झूटा समाज रस्म-ओ-रिवायात सरहदेंअब भी हैं राह-ए-इश्क़ में दीवार की तरह
सौंपोगे अपने बा'द विरासत में क्या मुझेबच्चे का ये सवाल है गूँगे समाज से
आज फिर अपनी समाअत सौंप दी उस ने हमेंआज फिर लहजा हमारा इख़्तियार उस ने किया
इश्क़-बाज़ों की कहीं दुनिया में शुनवाई नहींइन ग़रीबों की क़यामत में समाअत हो तो हो
सारी हिसों की डोर समाअत को सौंप करइस दिल पे कान रख कि ख़ुदा बोलता भी है
दो चार दिन से मेरी समाअत ब्लाक थीतुम ने ग़ज़ल पढ़ी तो मिरा कान खुल गया
हिसार-ए-गोश-ए-समाअत की दस्तरस में कहाँतू वो सदा जो फ़क़त जिस्म को सुनाई दे
किसे ख़याल था मिटती हुई इबारत कामहक रहा था चमन-दर-चमन समाअ'त का
बात पहुँचे समाअत को तासीर दे किस तरहलफ़्ज़ हैं और लफ़्ज़ों में ज़ोर-ए-बयानी नहीं
क्या जाने कब लम्हों की मफ़रूर समाअत लौटेअच्छी अच्छी आवाज़ों के जाल बिछाते रहना
सदा-ए-दर्द लगाता हूँ उस गली में जहाँशगुफ़्त-ए-गुल भी समा'अत पे बार होती है
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