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शेर
पाकी-ए-दामान-ए-गुल की खा न ऐ बुलबुल क़सम
रात भर सरशार-ए-कैफ़िय्यत मैं शबनम से रहा
मिर्ज़ा अली लुत्फ़
शेर
तुम भी थे सरशार मैं भी ग़र्क-ए-बहर-ए-रंग-ओ-बू
फिर भला दोनों में आख़िर ख़ुद-कशीदा कौन था
अशअर नजमी
शेर
वो दर्द उठा दिल में कि जिस दर्द का दरमाँ
गर हो न पस-ए-लफ़्ज़ तो मिलता है सर-ए-दार
शहनवाज़ फ़ारूक़ी
शेर
दिल है गर प्यार से सरशार तो मुमकिन है 'हबीब'
तू जिधर जाए वो राह-ए-दर-ए-जानाना बने