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शेर
मुसाफ़िराना रहा इस सरा-ए-हस्ती में
चला फिरा मैं ज़माने में रहगुज़र की तरह
मिर्ज़ा मासिता बेग मुंतही
शेर
उसी को ज़िंदगी का साज़ दे के मुतमइन हूँ मैं
वो हुस्न जिस को हुस्न-ए-बे-सबात कहते आए हैं
नुशूर वाहिदी
शेर
था किसी गुम-कर्दा-ए-मंज़िल का नक़्श-ए-बे-सबात
जिस को मीर-ए-कारवाँ का नक़्श-ए-पा समझा था में
अब्दुल रहमान बज़्मी
शेर
बड़ा घाटे का सौदा है 'सदा' ये साँस लेना भी
बढ़े है उम्र ज्यूँ-ज्यूँ ज़िंदगी कम होती जाती है
सदा अम्बालवी
शेर
बहुत बर्बाद हैं लेकिन सदा-ए-इंक़लाब आए
वहीं से वो पुकार उठेगा जो ज़र्रा जहाँ होगा