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शेर
ये किब्र-ओ-नाज़ अब क्या जब सर-ए-बाज़ार तुम निकले
मगर हाँ ये कहो बहुतों ने देखा कम ने पहचाना
इज्तिबा रिज़वी
शेर
है जल्वा-फ़रोशी की दुकाँ जो ये अब इसी ने
दीवार में खिड़की सर-ए-बाज़ार निकाली
सय्यद यूसुफ़ अली खाँ नाज़िम
शेर
कहाँ शिकवा ज़माने का पस-ए-दीवार करते हैं
हमें करना है जो भी हम सर-ए-बाज़ार करते हैं
अब्दुल मजीद ख़ाँ मजीद
शेर
हाथ मलते हुए आज आते हैं सब रह-गुज़रे
जा-ए-हैरत है कि मैं क्यूँ सर-ए-बाज़ार न था