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शेर
हमेशा ख़ून-ए-दिल रोया हूँ मैं लेकिन सलीक़े से
न क़तरा आस्तीं पर है न धब्बा जैब ओ दामन पर
साइल देहलवी
शेर
झड़ी ऐसी लगा दी है मिरे अश्कों की बारिश ने
दबा रक्खा है भादों को भुला रक्खा है सावन को
साइल देहलवी
शेर
ये मस्जिद है ये मय-ख़ाना तअ'ज्जुब इस पर आता है
जनाब-ए-शैख़ का नक़्श-ए-क़दम यूँ भी है और यूँ भी
साइल देहलवी
शेर
तुम्हें परवा न हो मुझ को तो जिंस-ए-दिल की परवा है
कहाँ ढूँडूँ कहाँ फेंकी कहाँ देखूँ कहाँ रख दी