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शेर
दोनों हों कैसे एक जा 'मेहदी' सुरूर-ओ-सोज़-ए-दिल
बर्क़-ए-निगाह-ए-नाज़ ने गिर के बता दिया कि यूँ
एस ए मेहदी
शेर
बहादुर शाह ज़फ़र
शेर
उम्र तो अपनी हुई सब बुत-परस्ती में बसर
नाम को दुनिया में हैं अब साहब-ए-इस्लाम हम
असद अली ख़ान क़लक़
शेर
कल के दिन जो गिर्द मय-ख़ाने के फिरते थे ख़राब
आज मस्जिद में जो देखा साहब-ए-सज्जादा हैं
बक़ा उल्लाह 'बक़ा'
शेर
हिज्र में उस बुत-ए-काफ़िर के तड़पते हैं पड़े
अहल-ए-ज़ुन्नार कहीं साहब-ए-इस्लाम कहीं
ताबाँ अब्दुल हई
शेर
मत मुँह से 'निसार' अपने को ऐ जान बुरा कह
है साहब-ए-ग़ैरत कहीं कुछ खा के न मर जाए