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शेर
दोनों हों कैसे एक जा 'मेहदी' सुरूर-ओ-सोज़-ए-दिल
बर्क़-ए-निगाह-ए-नाज़ ने गिर के बता दिया कि यूँ
एस ए मेहदी
शेर
ऐ सोज़-ए-इश्क़-ए-पिन्हाँ अब क़िस्सा मुख़्तसर है
इक्सीर हो चला हूँ इक आँच की कसर है
मिर्ज़ा मोहम्मद हादी अज़ीज़ लखनवी
शेर
है तमाशा-गाह-ए-सोज़-ए-ताज़ा हर यक उज़्व-ए-तन
जूँ चराग़ान-ए-दिवाली सफ़-ब-सफ़ जलता हूँ मैं
मिर्ज़ा ग़ालिब
शेर
बे-तकल्लुफ़ आ गया वो मह दम-ए-फ़िक्र-ए-सुख़न
रह गया पास-ए-अदब से क़ाफ़िया आदाब का