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शेर
हर किताब-ए-सोहबत-ए-रंगीं के मअ'नी देख कर
फ़र्द-ए-तन्हाई के मज़मूँ कूँ किया हूँ इंतिख़ाब
मिर्ज़ा दाऊद बेग
शेर
ये क्या है कि ज़िक्र-ए-ग़म-ए-अय्याम बहुत है
शीशे में अभी तो मय-ए-गुलफ़ाम बहुत है
वफ़ा शाहजहाँ पुरी
शेर
साफ़ क्या हो सोहबत-ए-ज़ाहिर से बातिन का ग़ुबार
मुँह नज़र आता नहीं आईना-ए-तस्वीर में
मुंशी खैराती लाल शगुफ़्ता
शेर
ग़म-ए-अय्याम पे यूँ ख़ुश हैं तिरे दीवाने
ग़म-ए-अय्याम भी इक तेरी अदा हो जैसे
अकबर अली खान अर्शी जादह
शेर
ज़ाहिदा तू सोहबत-ए-रिंदाँ में आया है तो सुन
तर्क गाली का न कर पगड़ी उतरने से न डर
वलीउल्लाह मुहिब
शेर
जब कोई फ़ित्ना-ए-अय्याम नहीं होता है
ज़िंदगी का बड़ी मुश्किल से यक़ीं होता है