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शेर
उस हर्फ़-ए-बा-सफ़ा ने तो सूली चढ़ा दिया
वो एक हर्फ़-ए-हक़ जो मिरे हाफ़िज़े में था
अहमद वक़ास महरवी
शेर
बे-तकल्लुफ़ आ गया वो मह दम-ए-फ़िक्र-ए-सुख़न
रह गया पास-ए-अदब से क़ाफ़िया आदाब का
मुनीर शिकोहाबादी
शेर
'क़लक़' ग़ज़लें पढ़ेंगे जा-ए-कुरआँ सब पस-ए-मुर्दन
हमारी क़ब्र पर जब मजमा-ए-अहल-ए-सुख़न होगा