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शेर
अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें
जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें
अहमद फ़राज़
शेर
इश्क़ के मज़मूँ थे जिन में वो रिसाले क्या हुए
ऐ किताब-ए-ज़िंदगी तेरे हवाले क्या हुए
अबु मोहम्मद सहर
शेर
'सहर' अब होगा मेरा ज़िक्र भी रौशन-दिमाग़ों में
मोहब्बत नाम की इक रस्म-ए-बेजा छोड़ दी मैं ने
अबु मोहम्मद सहर
शेर
हमें तन्हाइयों में यूँ तो क्या क्या याद आता है
मगर सच पूछिए तो एक चेहरा याद आता है
अबु मोहम्मद सहर
शेर
हँसा करते हैं अक्सर लोग दीवानों की बातों पर
जहाँ वाले नहीं समझे मोहब्बत की ज़बाँ शायद
अबु मोहम्मद वासिल बहराईची
शेर
रह-ए-वफ़ा में उन्हीं की ख़ुशी की बात करो
वो ज़िंदगी हैं तो फिर ज़िंदगी की बात करो
अबु मोहम्मद वासिल बहराईची
शेर
बला-ए-जाँ थी जो बज़्म-ए-तमाशा छोड़ दी मैं ने
ख़ुशा ऐ ज़िंदगी ख़्वाबों की दुनिया छोड़ दी मैं ने
अबु मोहम्मद सहर
शेर
तिरे ख़याल में मैं हूँ मिरे ख़याल में तू
मिरे बग़ैर तिरी दास्ताँ रहे न रहे
अबु मोहम्मद वासिल बहराईची
शेर
वफ़ादारी ग़ुरूर-ए-बे-रुख़ी को ख़त्म कर देगी
ज़ियादा तो नहीं कुछ दिन रहें वो बद-गुमाँ शायद
अबु मोहम्मद वासिल बहराईची
शेर
रह-ए-इश्क़-ओ-वफ़ा भी कूचा-ओ-बाज़ार हो जैसे
कभी जो हो नहीं पाता वो सौदा याद आता है
अबु मोहम्मद सहर
शेर
मुझे वो बातों बातों में अगर दीवाना कह देते
तो दीवानों में मेरी मो'तबर दीवानगी होती