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शेर
छेड़ती हैं कभी लब को कभी रुख़्सारों को
तुम ने ज़ुल्फ़ों को बहुत सर पे चढ़ा रक्खा है
ग़ौस ख़ाह मख़ाह हैदराबादी
शेर
तल्ख़ियाँ ख़ून-ए-जिगर की शा'इरी में घोल कर
चंद मिसरे' लाएँ हैं हम भी सुनाने के लिए
अरमान ख़ान अरमान
शेर
बाम-ए-फ़लक पे गर वो उड़ाता नहीं पतंग
ख़ुर्शीद ओ माह डोर के फिर किस की गोले हैं
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शेर
क़ातिल ने मुझ को ग़ौस का क्या मर्तबा दिया
सर है कहीं बदन है कहीं दस्त-ओ-पा कहीं