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शेर
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
शेर
कुंज-ए-क़फ़स ही जिस का मुक़द्दर हुआ 'जमील'
उस की नज़र में दौर-ए-ख़िज़ाँ क्या बहार क्या
जमील अज़ीमाबादी
शेर
काटे हैं हम ने यूँही अय्याम ज़िंदगी के
सीधे से सीधे-सादे और कज से कज रहे हैं
इंशा अल्लाह ख़ान इंशा
शेर
ज़ुल्फ़ों में तो सदा से ये कज-अदाइयाँ हैं
आँखों ने पर ये और ही आँखें दिखाइयाँ हैं
ख़्वाजा मीर दर्द
शेर
सब हम-सफ़ीर छोड़ के तन्हा चले गए
कुंज-ए-क़फ़स में मुझ को गिरफ़्तार देख कर
मिर्ज़ा मोहम्मद तक़ी हवस
शेर
हल्क़ा-ए-दिल से न निकलो कि सर-ए-कूचा-ए-ख़ाक
ऐश जितने हैं इसी कुंज-ए-कम-आसार में हैं