aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
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उठ कर तो आ गए हैं तिरी बज़्म से मगरकुछ दिल ही जानता है कि किस दिल से आए हैं
उफ़ वो मरमर से तराशा हुआ शफ़्फ़ाफ़ बदनदेखने वाले उसे ताज-महल कहते हैं
ग़ज़ब है वो ज़िद्दी बड़े हो गएमैं लेटा तो उठ के खड़े हो गए
अजीब होते हैं आदाब-ए-रुख़स्त-ए-महफ़िलकि वो भी उठ के गया जिस का घर न था कोई
धुआँ जो कुछ घरों से उठ रहा हैन पूरे शहर पर छाए तो कहना
अब सोचते हैं लाएँगे तुझ सा कहाँ से हमउठने को उठ तो आए तिरे आस्ताँ से हम
जब तवक़्क़ो ही उठ गई 'ग़ालिब'क्यूँ किसी का गिला करे कोई
तुझे दानिस्ता महफ़िल में जो देखा हो तो मुजरिम हूँनज़र आख़िर नज़र है बे-इरादा उठ गई होगी
जिन को दौलत हक़ीर लगती हैउफ़ वो कितने अमीर होते हैं
इक अदा मस्ताना सर से पाँव तक छाई हुईउफ़ तिरी काफ़िर जवानी जोश पर आई हुई
उठ गई हैं सामने से कैसी कैसी सूरतेंरोइए किस के लिए किस किस का मातम कीजिए
फिर बैठे बैठे वादा-ए-वस्ल उस ने कर लियाफिर उठ खड़ा हुआ वही रोग इंतिज़ार का
जान-ओ-दिल हैं उदास से मेरेउठ गया कौन पास से मेरे
रोए बग़ैर चारा न रोने की ताब हैक्या चीज़ उफ़ ये कैफ़ियत-ए-इज़्तिराब है
मेरे पास से उठ कर वो उस का जानासारी कैफ़िय्यत है गुज़रते मौसम सी
दामन झटक के वादी-ए-ग़म से गुज़र गयाउठ उठ के देखती रही गर्द-ए-सफ़र मुझे
जिस तरफ़ उठ गई हैं आहें हैंचश्म-ए-बद-दूर क्या निगाहें हैं
आए भी लोग बैठे भी उठ भी खड़े हुएमैं जा ही ढूँडता तिरी महफ़िल में रह गया
जब तलक क़ुव्वत-ए-तख़य्युल हैआप पहलू से उठ नहीं सकते
उठ कर तिरे दर से कहीं जाने के नहीं हममोहताज किसी और ठिकाने के नहीं हम
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