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शेर
तबीअत अपनी घबराती है जब सुनसान रातों में
हम ऐसे में तिरी यादों की चादर तान लेते हैं
फ़िराक़ गोरखपुरी
शेर
ज़िंदगी पर इस से बढ़ कर तंज़ क्या होगा 'फ़राज़'
उस का ये कहना कि तू शाएर है दीवाना नहीं
अहमद फ़राज़
शेर
शाम-ए-फ़िराक़ अब न पूछ आई और आ के टल गई
दिल था कि फिर बहल गया जाँ थी कि फिर सँभल गई
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
शेर
मिरी ख़ामोशियों पर दुनिया मुझ को तअन देती है
ये क्या जाने कि चुप रह कर भी की जाती हैं तक़रीरें
सीमाब अकबराबादी
शेर
कुछ इशारा जो किया हम ने मुलाक़ात के वक़्त
टाल कर कहने लगे दिन है अभी रात के वक़्त
इंशा अल्लाह ख़ान इंशा
शेर
मिरी चश्म-ए-तन-आसाँ को बसीरत मिल गई जब से
बहुत जानी हुई सूरत भी पहचानी नहीं जाती